आहें पुकारें और नाश
जो भी देखा,
सब सच था ।
मैं पुरे समय हँसता रहा
मनुष्य इतना नृशंश नहीं हो सकता,
मानवता का मूल्य इतना नहीं गिर सकता।
पर बच्चों के आंसू –
खून और विध्वंश,
चीखती मानवता
और अट्ठहास
सब सच था ।
पर उन्हें सच से मुँह मोड़कर क्या मिला
खून बहाकर क्या मिला
उनके सिध्दांत खरे तो नहीं निकले
उनके मुर्दे तो नहीं जागे।
इस चकाचोंध का अँधेरा
पागलपन
सब सच था ।
– औचित्य कुमार सिंह (07.04.2008)
बहुत खूब. मन को झकझोरने वाली रचनाए है आपकी औचित्य और कहने का अंदाज़ भी अलग एवं क्रांतिकारी है.
मनुष्यता की नष्ट होती संवेदना पर पकाश डालती, ह्रदय विदारक एवं मर्मस्पर्शी रचना !!
मधुकर जी तथा निवतियां जी को उनकी प्रतिक्रिया के लिए सादर आभार