मोर नहीं अब नृत्य दिखाते, चातक की पिउपिउ गायब हॆ।
मरघट से उठती चीखों पर सरसा नायाब अजायब हॆ।
बुलबुल, मॆना, कोयल, हंसों की जहां सभा गूंजा करती,
गीदड़, उल्लू, कॊओं, कुत्तों की चल रही निरन्तर दावत हॆ।
हड्डी पाने की लगी होड़, भाई ही अपनी बाधा हॆ,
आधी हड्डी उसकी हिस्सा आखिर उसका भी आधा हॆ।
टूट पड़े दोनों उसपर पाने या मिट जाने को,
भूख, तृषा, या दीनभाव मानस से आज हटाने को।
घनीभूत अंधड़ बनकर फिर तेज झपट्टा आता हॆ,
सहज भाव से, साधिकार, वह हाड़ उड़ा ले जाता हॆ।
आकुलि किलात से कुत्ते दो लड़ झपट पटक मर जाते हॆं,
नियति, स्वत्व या तृष्णा के कुछ प्रश्न छोड़ से जाते हॆं।
उधर उड़ा जा रहा व्योम में, फाड़ रहा नभ की छाती,
अांखें शायद अंधी मद में, हॆ नियति, न मॆं कोई पापी।
झुलस गिरा उल्के से भिड़ या आत्मग्लानि की ज्वाला से,
स्वयं गिरा दावत बनकर छिटका फिर माल निवाला से।
सहसा लोचन कुछ चमक उठे रोते हतभाग्य आजतक थे,
लोकतंत्र के मरघट की उस न्यायव्यवस्था से खुश थे॥
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Kya gajab ka ullekh kia h aaj ki vyavstha kaa…….कच्चे धागे कविता पर भी अपनी प्रतिक्रिया दें।
सुन्दर अभिव्यक्ति !! शब्द संरचना कविता के अनुरूप प्रशंशनीय है !!