अहंपोषित, दीर्घजीवी
प्लास्टिक का मेरा पौधा।
गमले में मुरझाती पत्ती
फैलती मिट्टी
और बस चमक क्षण सूखता
हत काव्य रूप औपचारिक,
वो प्रकृति पोषित, मृत्यु शापित , जलाभिलाषी
हरा भरा उसका पौधा।
मार्बल की धरा में ये जड़ा –
अवसान विजयी ,
सत्यरूप ,
ठुमकता सा झुमकता सा
मेरा चितेरा मद मोह मेरा ।
तीन उसने पौधे बदले
और ये खड़ा यूँ ही स्थूल,
कभी कभी अब मैं
ढूंढा करता हूँ कांटे।
स्निग्ध रस तो महंगा है आजकल
खुशबू विरल।
विष्णु के स्वप्न से
कृत्रिम चेतना का लम्बा सफर,
सरल परिभाषित सत्य की ओर जैसे।
या जम्भाई है शायद।
चुभन से हो शायद संतोष,
झुंझलाहट ही का उभरे मानव बंधन ।
क्षण भर ही का ये उन्माद
प्लास्टिक में अंतिम अखंड विश्वास ।
तेरे पौधे में तो कीड़े भी लगते हैं ।
– औचित्य कुमार सिंह (04.10.2015)
वाह भावना रहित आज के मशीनी समाज पर चोट करती उत्तम रचना
आप जैसे साहित्य साधक से सुने ये दो बोल बहुत आगे तक प्रोत्साहित करेंगे।
वाह गजब है प्लास्टिक का पौधा ….बहुत खूब कहा आपने
आज की स्वत्व खोई, वास्तविकता से हठात विमुख एवं दिखावटी मानव सभ्यता के विद्रूप पर चोट करती बढिया पंक्तियाँ|
Aapke prakiti prem ke sath machinikaran ke prati aapka dwesh spasta jhalakta hai.
uttam rachna
राकेश जी, उत्तम जी धन्यवाद।
आधुनिक युग में लुप्त होती प्राकृतिक सम्पदा पर कटाक्ष करती सुंदर रचना !!
धन्यवाद निवतियां जी