यह कविता मैने २२ साल पह्ले होली के अवसर पर लिखी थी.
आज है पावन, प्यारा प्यारा, होली का त्यौहार
जिस में दुश्मन भी मिल के गले, बन जाते है सच्चे यार
रंग लगाकर एक दूसरे के, रंग में सब रंग जाते हैं
मस्ती में फिर झूम झूम के, गीत ख़ुशी के गाते हैं.
आज है पावन, प्यारा प्यारा, होली का त्यौहार.
इस त्यौहार की बात निराली, जीजा को रंगती है साली
माफ़ नहीं कोई किसी को करता, चाहे दे कोई कितनी गाली
भाभियों को तो लगता है ये डर, कि रंगने आएगा देवर
हो कितनी भी नोक झोंक, पर मिटता नहीं है दिल का प्यार.
आज है पावन, प्यारा प्यारा, होली का त्यौहार.
कहने को तो मैं भी खेला, खूब रंग इस बार
पीने को तो पी भीमैने , एक नहीं कई बार
हँसने को तो हँसा बहुत, पर ख़ुशी नहीं थी यार
शायद ये सब छुपा हुआ था, मन का कोई गुबार.
आज है पावन, प्यारा प्यारा होली का त्यौहार.
शिशिर “मधुकर”
होली मनाने के शरारत भरे अंदाज आज एक कल्पना मात्र रह गया है, इसका इजहार बड़ी सुंदरता से अंत की पंक्ति में कर दिया !! बहुत अच्छे !
बहुत बहुत आभार निवातिया जी लेकिन अन्त मे मैने मन के दर्द की वजह से होली का वास्त्विक आनन्द ना आने की बात रखने की कोशिश की है. होली का आनन्द भी तभी आता है जब मन प्रसन्न हो.
बहुत खूब शिशिर जी, मेरे कहने का तातपर्य यही था की यदि चित्त प्रसनन न हो तो होली का आनदं नीरस होता है इसका वर्णन अंतिम दो पंक्तियों में कर दिया गया हैं !