मोह से कितना दुःख होता है
ये मैंने अब जाना
यदि न हो ये संग अपने
मिलता है सुख अंजाना
भावुक होना है पागलपन
इसका कोई नहीं है मोल
यदि इस जग में जीना है तो
सीधी सच्ची बोली बोल
दुनिया भर के साथ चलो
और बन जाओ यथार्थ्रवादी
यदि नहीं करोगे तुम ऐसा
हर मोड़ पे होगी बर्बादी
यदि अब भी तुम नहीं सुधरे तो
कुछ ऐसे धोखे खाओगे
जीवन भर करोगे कोशिश
उनके गम से उबर न पाओगे.
शिशिर “मधुकर”
Ati sundar kavita.
धन्यवाद उत्तम जी.
सीधी सच्ची बोली बोल…. बहुत खूब
आपका बहुत बहुत आभार राकेश जी
शिशिर जी सत्य कहा “मोह माया ही सर्व कष्टो की कारक है !!
लेकिन मोह सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग है सामाजिक प्राणी इससे अछूता नही रह सकता !!
आपने बिलकुल सत्य कहा निवातिया जी. यह रचना मैंने अपनी काव्य यात्रा की शुरुआत में वर्ष १९९३ में लिखी थी. इस समाज में शांति से जीने के लिए कर्मयोगी के रूप में ही मोह को अपनाना पड़ेगा नहीं तो युद्ध लड़ने से पहले वाली अर्जुन की दशा होना निश्चित है.
कहाँ बचता है कोई । सब जानते हैं मगर जाल में फंसना ही है । सटीक अभिव्यक्ति ।
जैसा आपने कहीँ पहले कहा औचित्य जिंदगी इसी कश्मकश मे गुजर जाती है