दौलतमंद था तो दोस्तों का काफ़िला साथ था,
पर मुफ़लिसी में दुश्मनों के साथ को भी तरस गया हूँ।।
क्यों लोगों को दूँ अपनी बेगुनाही का सबूत,
अब तो मैं खुदा से भी इंसाफ को तरस गया हूँ।।
इतनी ही अगर तकलीफ़ थी तो मेरे साथ क्यों चले,
मैं अब अपने अकेले पल को तरस गया हूँ।।
तेरी हर झूठीं बातों पर यकीन करा रहा,
मैं तो तेरे मुँह से सच सुनने को तरस गया हूँ।।
बहुत सुन्दर रचना.
आपका शुक्रिया..
जीवन के सत्य यथार्थ को दर्शाती अच्छी रचना !!