तेरे बिन अब कहीं दिल ये लगता नही
मेरी हर सांस में तुम समा सी गयी,
दिल की धड़कन भी बेताब होने लगी
मेरे जज़्बात को क्यों समझती नही।
तेरे बिन अब कहीं…!!
रात थी चांदनी और सितारे भी थे
उसपे तेरे ख़यालों के साये भी थे,
रात अब तो यूं तन्हा गुज़रती नही
तुम क्यूँ मेरी मोहब्बत समझती नही।
तेरे बिन अब कहीं…!!
तेरी बातों को तो मैं समझता गया
तेरी आँखों की चाहत मैं पढता गया,
बस गिला है जो मुझको तो इस बात का
मेरी बातों को तुम क्यों समझती नही।
तेरे बिन अब कहीं…!!
एक अरसा हुआ तुझसे मिलते हुए
दिल का आलम न था मेरे पहले तो ये,
अब ये क्या हो गया और क्यूँ हो गया
दिल के हालात को क्यूँ समझती नही।
तेरे बिन अब कहीं…!!
— अमिताभ ‘आलेख’
विरह वेदना की कशक लिए सुंदर रचना !! बहुत अच्छे “अमिताभ जी” !!
अनेक धन्यवाद धर्मेन्द्र जी.