गरीबी की मार बोलूँ या परिवार की आस
ना जाने क्यों निकल पड़ते हैं वो
उस कड़कड़ाती ठंड मैं कूड़ेदानों के पास ।
मुख पर वो भोलापन और कंधों पर वो थैला
न तन पर कोई कपड़ा ,न पैरों में कोई जूता
क्या कहूँ इसे मैं किस्मत की मार या
देश में लटकती गरीबी की तलवार ।
दिन भर भूखे पेट, खोजकर उस कूड़े में कुछ सामान
रात को नसीब हो एक रोटी बस दिल का यही अरमान।
न आस किसी खिलौने की ,न ही पढने का कोई ज्ञान
न जाने कब ख़त्म होगा गरीबी का ये शमशान ।
अवश्य दुःख होता होगा उन्हें भी ,स्कूल जाते उन बच्चों को देखकर
पूछते होंगे वो भी खुदा से क्या गलती थी हमारी इस धरा पर जन्म लेकर !
आँख भर आई वो दृश्य देख
जब वो बच्चे थे उस तवे से रोटी उतरने के इंतजार में
रोटी मिलते ही जो ख़ुशी देखने को मिली उनकी नन्हीं आँखों मे
शायद नसीब न होती हो वो ख़ुशी पाँच सितारा होटल में खाने में ।
उस वक्त एहसास हुआ मुझे क्या दुःख ,क्या दर्द
क्या है ये जिन्दगी !
वक्त बदलता गया पर न बदली उनकी किस्मत ,
आज भी कूड़ा बीन रहे हैं वो बदकिस्मत ।
शुभम चमोला
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Extraordinary piece of work. Congrats
धन्यवाद मधुकर जी