वक़्त ने क्या अजीब सितम ढाये ज़माने पर
आजमाईश ना चली किसी की वक़्त के फसानो पर
फसले भी ना देखने मिली जमीं के माथे पर
किसान खुद ही रो पड़ा अपने इन हालातो पर
बस न चा उसका इन वक़्त की लकीरों पर
तो खुद को तबाह कर लिया एक रस्सी के फंदे पर
दुनिया ने इन नजरो को खूब देखा
वक़्त का मारा कह कर हस दिया उस बिचारे पर
माँ बेटी बेहेंन बीवी हो गयी अकेली
तरस कर रह गयी अपने इन हालातो पर
बाप और भाई उसका आसमान को टटोलकर देखता
की बस अब एक बूंद गिर जाये उनकी बंजर जमीं पर
जो उगा दे अनाज और भर दे पेट सबका
क्यू के कोई और भूखा न मर जाये उस रस्सी के फंदे पर
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