यह कविता मैंने अपनी एक सहयोगी को उसके बेटे की शादी के अवसर पर उपहार स्वरुप दी थी .
मुबारक हो तुमको बेटे की शादी
बने घर तुम्हारा खुशियों की वादी.
लड़की जो बेटे के जीवन में आए
पति संग पूरे परिवार को चाहे
करे पूरी शिद्दत से बुजुर्गों की सेवा
और बदले में पाए आशीष की मेवा
छोटों को दे अपना निश्छल सा प्यार
और मन में न रखें वो कोई गुबार
बोले वो जब तो लगे ऐसा सब को
कानों में जैसे मिस्री घुला दी.
मुबारक हो तुमको बेटे की शादी
बने घर तुम्हारा खुशियों की वादी.
तुम भी उसे उसका अधिकार देना
अपनी ही बेटी सा सरल प्यार देना
उसकी खुशियों की चिंता भी करना
मिल जुल के उसके सभी कष्ट हरना
जीवन की उसको तालीम देना
भूलों को उसकी क्षमा कर देना
बैठी हो जब वो लगे ऐसा सब को
अँधेरे में जैसे कोई ज्योति जला दी.
मुबारक हो तुमको बेटे की शादी
बने घर तुम्हारा खुशियों की वादी.
शिशिर “मधुकर”
शिशिर जी ,आप ने दो रिश्तों में mutual love and respect को balance किया है वह प्रशंसनीय है ।
आपके मूल्यांकन के लिए बहुत बहुत आभार बिमला जी.
पारिवारिक रिश्तो विशेषकर “बहू-बेटी” में समानता पर बल देती शिक्षाप्रद रचना !!
लाजबाब !!