क्यूँ मुह मोड़ लिया हमने
क्यूँ नाता तोड़ लिया हमने
हो पृथक अपनी ही वसुधा से
ये कैसा न्याय किया हमने
बढ़ चले है कदम फिर आज
शहरो की गुलामी की ओर,
रिश्ते-नाते सब रह गए पीछे
पकडे जब हम उन्नति की डोर
रास ना आती वो गलियाँ अब
बचपन जिनमे कभी होता था अजोर
ठंडा-ठंडा वो कुए का पानी
मदमस्त हवा वो पीपल के वृक्षों की
खेतो की वो मोहक खुशबु
मन को भाती हरियाली फसलों की
मित्रो संग बैठना तालाबों पे
फिर बातें करना मन भर की
क्या ये खुशिया मिल पाएंगी
शहरो के उस जीवन में
पैसे चार भले होंगे
पर क्या खुशिया होंगी मन में
भाग रहा हर कोई पैसे की खातिर
छोडके गांवो की माटी को
क्या पैसे से मिल पायेगी
राहत उन भूखे पेटों को
क्यूँ ना समय से पहले चेते हम
सहयोग जरा सा दे कृषि को
बिठा सामंजस्य फिर जीवन में
देके दोनों पहलु पे जोर
कृषि को संग फिर रखके हम
बढे सदैव विकास की ओर…
अपनी धार की खुशबु समेटे, उसके प्रति जिम्मेदारियों को याद दिलाती एक शानदार रचना !!
अपनी धरा की खुशबु समेटे, उसके प्रति जिम्मेदारियों को याद दिलाती एक शानदार रचना !!
धन्यवाद निवातियां जी …