मेरा मन कैसा है ये
सदा प्रेम की तलाश में रहता है
और हमेशा धोखे खाता है.
जो अच्छा लगता है और
जिससे मन कुछ पाना चाहता है
वो इसे समझ ही नही पाता
या यूँ कहो के मैं उसे समझा ही नही पाता.
ये भी हो सकता है कि समझने के बाद भी
वो मेरी आशाओं को मूल्यहीन समझता हो.
कारण जो भी हो इसके कारण
जीवन में एक अवसाद तो रहता ही है.
क्योंकि कितने कम भाग्यशाली ऐसे होते है
जिन्हे अपने मन कि इस खाई से
निकल पाने में सफलता मिलती है
और जीवन के आनंद को प्राप्त करने का
सुअवसर प्राप्त होता है
जो काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह से
सर्वथा परे है एवं केवल उल्लास देने वाला है.
शिशिर “मधुकर”
Ati Uttam kavita hai
मन शायद आपका नहीं बचा किसी और का हो गया है। अच्छा है बहुत।
Prem ki Barsaat par apni rai den
उत्तम जी, मैंने आपकी यह कविता भी पड़ी थी. मेरे अनुसार “मन की छत पर बज रहा था यादों की बूँदों से नित नए धुन” के स्थान पर यदि आप “मन की छत पर बज रही थी यादों की बूँदों से नित नई धुन” को लिखें तो बेहतर होगा क्योंकि यदि पहली पंक्ति में ही लिंग और मात्राओं में त्रुटि ज्यादा हो तो आगे कविता कितनी भी अच्छी हो पाठक पढता नहीं. अब जब मैंने आपकी पूरी कविता को उपरोक्त चेंज कर पढ़ा तो बहुत अच्छी लगी.
मेरी कविता की सराह्ना के लिए आपको और राकेश जी को आभार.
वास्तविक प्रेम सदैव निस्वार्थ होता है !
प्रेम पर बहुत अच्छा प्रकाश डाला “शिशिर जी” !!
बहुत बहुत आभार निवातिया जी