।।ग़ज़ल।।गुनाह के ख़ातिर।।
तेरी मुद्दत, तेरी इज्जत तेरी परवाह के ख़ातिर
तन्हा हूँ अकेला ,पर किसी हमराह के ख़ातिर ।।
जा चली जा ,दूर हो जा, न लौट कर आना कभी ।।
खुदी को रोकना मुश्किल तुम्हारी आह के ख़ातिर ।।
ये इश्क़ का दरिया है काँटे यहा चुभते रहेगे ।।
तुम्हे बदनाम क्यों कर दू महज़ आगाह के ख़ातिर ।।
चलो मैं मान लेता हूँ तुम्हे मुझसे मुहब्बत है ।।
मग़र तुम कल भी आये थे किसी की चाह के ख़ातिर ।।
तोड़ आयी हो जिसका दिल उसी को तू मना ले जा ।।
नही हम तोड़ते दिल को किसी गुनाह के ख़ातिर ।।
बहुत ढूढ़ा यहा मैंने कोई बेदाग़ न निकला ।।
तभी तो आज तन्हा हूँ वफ़ा की राह के ख़ातिर ।।
R.K.M
Mishra ji, Ghazal ke antim sher bahut khoobdoorat hai. Shuru ke shero me kuch confusion hai.Tanha aur akela ka to jaise ek matlab hai.
बहुत प्यारी गजल है .!!!!
तन्हा लोग भीड़ में भी होते है । अकेला सिर्फ खुद का ही होना है ।।
बहुत बहुत आभार मधुकर जी
I agree Ram Kesh Ji
अनुज जी बहुत बहुत आभार
धन्यवाद Shishir ji
बहुत उम्दा …. रामकेश जी …….!!