मिट रहें है सारे भरम
तुम्हे अपना समझने के.
तुम्हारी हर बात में अब
नज़र आने लगा है
तुम्हारा अपना स्वार्थ.
अब तुम्हारे बारे में सोचने से
मन को शांति नहीं मिलती.
कितना गलत था मैं कि तुम
मेरे दुःख के साथी हो.
नहीं समझ पाया था मैं के मेरे लिए
तुम्हारा सहयोग सिर्फ
ईश्वर की इच्छा मात्र है.
अफ़सोस उसको छोड़ दिया मैंने
तुम्हारे लिए.
लेकिन अब मुझे एहसास है
उसके निःस्वार्थ प्रेम का.
शिशिर “मधुकर”
मन के भावो को ह्रदय से छूती अच्छी रचना !!
बहुत बहुत आभार निवातिया जी