हे ईश्वर तू भी था कितना अच्छा
जिसने मीत दिया था सच्चा
ऐसा मीत जो प्यारा था
सारी दुनियाँ से न्यारा था.
कितना करता थी प्यार मुझे वो
कैसे में तुझको बतलाऊं
उसने मुझे दिया था क्या क्या
कैसे मैं तुझ को समझाऊं.
मैं भी था तेरी आभारी
तूने दी मुझको खुशियाँ सारी
पर पता नहीं तुझको क्या सूझा
सारी खुशियाँ छीन ली तूने
मुझको मेरा दोष बता दे
आखिर क्या गलती की मैंने.
अब सब कुछ है जब ख़त्म हुआ
तो मैं भी भूलना चाहता हूँ
लेकिन यह सच है मैं अब भी
एक पल भी भूल ना पाता हूँ.
या तो दे वापस प्यार मेरा
या मुझको मुझसे छीन ले तू
यदि नहीं है कुछ भी अब संभव
ईश्वर कहलाना भी छोड़ दे तू.
शिशिर “मधुकर”
दिल को छूती सुन्दर कविता
आपकी सराह्ना के लिए अनेको धन्यवाद हितेश जी
शिशिर जी यह रचना भी “असहनीय” दर्द का हिस्सा लगती है !!
निवातिया जी आपका कथन सत्य है. ये दोनो रचनाए बहुत कम अन्तराल पर लिखी गई है. तारीफ के लिए शुक्रिया.
जैसे कोई बालक अपनी माँ से जिद करके अपनी हर बात का जवाब मांगता है वैसे ही आपका ईश्वर से हठ करना बिलकुल अपना सा लगता है जैसे ये आप नही हम ही हैं………….
सुशील जी यदि जिद मे ताब ना हो तो इश्वर से पाना क्या आसान है? आपकी तारीफ के लिए शुक्रिया.