अब वक़्त वो नही जो रिश्तों को रखे कायम।
ज़िंदगी की बढ़ रही है जो रफ़्तार धीरे धीरे।।
आबाद कर दिया अपने बच्चों को उसने लेकिन।
बर्बादी के आ गए उसकी आसार धीरे धीरे।।
हर शख़्स ने करी है यहां बहुत तरक्की।
मुफ़लिसों की बढ़ गयी है तादाद धीरे धीरे।।
हवाओं से शहर की अब डरने लगा है वो भी।
बेटियां जो हो रही हैं जवान धीरे धीरे।।
सोहबत भी उसकी देखो क्या रंग लायी ‘आलेख’।
लिखने लगा हूँ मैं भी कुछ असरदार धीरे धीरे।।
— अमिताभ ‘आलेख’
आज की वास्तविकता और एक आम इंसान की पीड़ा को दिखाती भावुक कविता
धन्यवाद शिशिर जी।
समाज में पनपती विसंगतियों पर प्रकाश डालती अच्छी रचना !! बहुत अच्छे “अमिताभ जी”
आपको पसंद आयी इसके लिए शुक्रिया |