नदी के ठहरे,
पानी की तरह ,
रुक गया हूँ आज मैं ,
किधर जाऊं मैं ,
किस रास्ते को अपनाऊं मैं
कौन मुझे पहुंचाएगा ,
मेरे सागर तक .
डर लगता हैं ,
कहीं मैं ,
बरसाती नदियोँ की तरह ,
विलुप्त ना हो जाऊं ,
या फिर मरुभूमि की ,
प्यास बुझाते-बुझाते ,
खुद सूख न जाऊं ,
तब फिर कैसे पहुंचूंगा ,
अपने सागर तक ,
क्या मैं अपरिचित रह जाऊं ,
दुनिया से ,
तो फिर मेरे,
उद्गम का क्या अर्थ हो .
मुझे बढ़ना होगा ,
चट्टानों से टकराकर ,
संकरे पथो से ,
निकलकर ,
मुझे मिलना होगा ,
सागर से ,
अपने अस्तित्व को ,
बचाने के लिए .
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Vey nice thoughts assimilating thr sprit of hard work struggle and courage
thanks uncle to encourage my work , I will trying more .
बहुत अच्छे …………!!