ना जाने लोग कैसे रहते हैं इतने खुश
जो हर समय खिलखिलाकर हँसते हैं
खिलखिलाहट तो रही दूर
हम तो खुशी के लिए तरसते हैं
ऐसा नहीं कि हम कभी खुश नहीं थे
या कभी खिलखिलाकर नहीं हँसे थे
एक ज़माना था जब लोग हमसे मिलते थे
तो उनके चेहरे भी हमारे साथ खिलते थे
फिर हमारी जिंदगी में ऐसा समय भी आया
जिसने हमें प्यार के एहसास को कराया
हम प्यार की गहराई में इतना उतर गए
कि अपने वज़ूद कि परछाई से भी दूर हो गए
हमें नहीं थी परवाह फिर अपने वज़ूद की
हमने तो की थी पूजा बस अपने महबूब की
हमारी जिंदगी का बन गया था सिर्फ यही मकसद
कि वो हमारे साथ रहे हर घडी और हर पग
लेकिन उसकी शख्सियत ने हमें कुछ इस क़दर तोडा
ग़मगीन कर दी जिंदगी और कहीं का ना छोडा
अब तो मेरी साँसे धूए में उड़ रही है
और जिंदगी ना जाने किस ओर मुड़ रही है
ऐसा नहीं के मैं सच्चाई नहीं जानता
और अपने आसन्न अंत को नहीं पहचानता
मैं जानता हूँ हर सच पहचानता हूँ हर सच
लेकिन मेरा ये पागल मन अब भी नहीं मानता.
शिशिर “मधुकर”
मेह्बूबा की बेवफायी का सुन्दर उदाहरन
शिशिर जी लाजवाब रचना है ये आपकी | बधाई |
हितेश जी एवं अमिताभ आपकी प्रशंसा के लिए शुक्रिया. अमिताभ तुम्हारी रचनाओ की कसक ने ही मुझे अपनी इन रचनाओ को इस पटल पर रखने को उत्साहित किया.
बहुत बहुत धन्यवाद आपका शिशिर जी मेरी रचनाओं के प्रति इस प्रेम का. अनेकों आभार. वैसे हम लोग न जाने कितनी उत्तम रचनाएँ दिन प्रतिदिन पढ़ते रहते हैं किन्तु ये तो सबकी अपनी कल्पना और लेखनी ही होती है जो उस से किसी एक विशिष्ट प्रकार की शैली में रचना को जन्म देती है. वैसे मेरा प्रयास यही रहता है की हर बार पहले से और अधिक अच्छा और अलग शैली में लिखने का प्रयास करूं.
मन की गहराइयो को छूती अच्छी रचना !!
धन्यवाद निवातिया जी