प्रभु खड़े गंगा किनारे केवट को बुलवा रहे
पार होने के लिए मल्लाह से नाव मगा रहे||
तो सुनकर एक मल्लाह चला आया प्रभु के पास मे,
और बोला, सुना है रज चरण से पत्थर उड़े आकाश मे||
जब पत्थर उड़े आकाश मे तो सामर्थ कहा फिर काठ मे
तो करले अपनी दूर सन्सय यो हरी बतला रहे.
पार होने के लिए मल्लाह से नाव मॅंगा रहे…….
फिर सहित सीता नाथ लक्ष्मण जा विराजे नाव मे,
मल्लाह ने बल्ली लगा कर नैया को छोड़ा धार मे,
फिर धीरे-2 जा उतारे पार मे.
तो क्या विदा दे दू इसे, कुछ पास ना सकुचा रहे
तो सीता बोली हरी से मन मे सकुचाओ मति,
है अँगूठी पास मे, इसको दे दीजे पति|
देखकर इस द्श्य कहा मल्लाह ने, कि दर्शन किए सो हो गति
मे नाथ माझी घाट का, संसार सागर के हो तुम
मेने किया है पार तुमको, मुझको लगाना पार तुम
तो देखकर इस द्श्य को देवता हर्षा रहे
पार होने के लिए मल्लाह से नाव मॅंगा रहे……. कवि:- शिवदत्त श्रोत्रिय
अपनी भाषा में केवट प्रसंग के चित्रण का अच्छा प्रयास.
bahut bahut aabhar aapkaa.
Nice line…
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