वैसे तो रोज़ याद आती है तू
दिल में एक दर्द सा दे जाती है तू
लेकिन मैं अपने आप को लेता हूँ संभाल
जब भाग्य में तू नहीं थी तो फिर कैसा मलाल
पर जब से है देखा दो सच्चे प्रेमियों को
नहीं रोक पा रहा हूँ अपनी भावना को
रह रह के मुझको तेरी याद आ रही है
तेरे आगोश की आकांशा मुझे तड़पा रही है
मैं चाह रहा हूँ ये भावना मेरे मन में ना आए
तेरी तड़प अब मुझको और ना तड़पाए
पर शायद नहीं है कुछ भी अब मेरे बस में
सिवाय ग़मों को सहना वो भी हँस हँस के.
शिशिर “मधुकर”
प्रेम अनुभूति का सुंदर वर्णन !!
निवतियाँ जी प्रशंसा के लिए हार्दिक आभार . यह कविता १९९३ के आस पास लिखी थी.
कमाल की लिख दिया है आपने शिशिर जी | बहुत बहुत बढ़िया | एकदम कमाल |
Dhanyavad Aalekh for your passionate comments
Congratulations
Fifty mubaraq ho!!!!
Thank u Anuj for u r support during above journey