सुनते थे की प्यार होता है अँधा
मगर मुझको तो ये भी लगता है धंधा
यहाँ भी रोज़ बदलती हैं पूजा
है आज कोई तो कल कोई दूजा
सभी अपना ऐशो आराम खोजते है
है दौलत कितनी ये सोचते है
स्तर के भी हैं बहुत मानें
ये वो सच है जो हर प्रेमी जाने
यदि नहीं है सामान स्तर
तो वफ़ा की आशा भी ए दिल तू ना कर
गर होगी ना आशा ना होगी निराशा
ना रोएगा तू भी बन के तमाशा.
शिशिर “मधुकर”
आजकल के प्रेम की सटीक परिभाषा !!
लेकिन निवातियाँ जी मुझे तो ये परिभाषा २३ साल पहले समझ आई थी. ऐसा लगता है हर काल में इसका महत्व बरकरार है.
यथोचित ….. यही तो एक कवि की सर्जनशीलता है !
वाह क्या बात है……हर काल में संभव है…..सही कहा आपने…..
Thank you so much Babbu ji for reading and commenting.