जिस दिन से तुमको देखा आँखों में बसा लिया था
सूरत को तेरी हमने इस दिल में छुपा लिया था
तेरे भोलेपन पर हम इतने दीवाने थे
तू थी शमा हमारी हम तेरे परवाने थे
पर तूने हमसे सदा नज़रें ही चुराई थी
शायद मन ही मन में तू भी भरमाई थी
हम कह ना सके कुछ तुमसे ये दोष हमारा था
लेकिन यह सच है मेरा सब कुछ केवल तुम्हारा था
फिर एक दिन मैनें तुमको दिल से पुकारा था
पर शायद सच सुनना ना तुमको गवारा था
मैंने तो हार थी मानी पर तुमने जीत बना दी
फिर तुम ही तो वो थीं जिसने प्रीत जता दी
मैं तो था एक परवाना उड़ चला शमा की ओर
और बांध ली परवाने ने दिल की दिल से डोर
हमनें तो कसमें खाई थीं जीवन भर साथ निभाने की
पर शायद थी खबर ना मुझको इस बेदर्द ज़माने की
शमा जली पर रोशन करने किसी और का गलियारा
परवाने को छोड़ गई वो जहाँ था केवल अँधियारा .
शिशिर “मधुकर”
प्रेम के मध्य दर्द की चुभन साफ़ झलकती दिखाई दे रही है, अति सुन्दर !!
आपके शब्दों के लिए बहुत बहुत आभार निवातियाँ जी. आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार था. आपसे प्रार्थना है कि अभी शनिवार को प्रकाशित मेरी रचना “स्त्री” को अवश्य पढ़े और अपनी प्रतिक्रिया ज़रूर भेजें.मुझे आशा है आपको वह रचना पसंद आएगी.
अवशय शिशिर जी, माफ़ कीजियेगा शनिव्वर की रचनाये में पढ़ नही सका!!