गिरह फिर खोल दो साक़ी, जो अब घुटने लगा है दम ।
निगाहों से पिला दो मय, कि प्यासे मर न जाएँ हम ।।
आशियाँ है ये छोटा सा, कुछ शिकवे-ओ-शिकायत हैं ।
यूं दिल में शक़ न पैदा कर, कि वापस घर न आएं हम ।।
यहां हर शख़्स की नियत पे, पानी फिर चुका या रब ।
पकड़ कर मुझको रख ऐ रब, नज़र से गिर न जाएँ हम ।।
बे ईमां दुनिया में हरसू, है इतनी वादा खिलाफ़ी क्यूँ ।
ज़बां ऐसी तू दे मुझको, ज़बां से फिर ना जाएं हम ।।
— अमिताभ ‘आलेख’
वाह क्या बात है. खूबसूरत रचना.
शुक्रिया शिशिर ।