जो बीत गयीं यादें पीछे
उन यादों को अब याद न कर,
तेरी राह में हैं अब लोग बहुत
अब मिलने की फ़रियाद न कर।
जज़्बा-ए-दिल ग़र रखते हो
तो दिल में दफ़न कर दो यादें,
वो शख्स ग़र आये जो यादों में
तो उसको अब आदाब न कर।
कितने मीठे थे वो लम्हे
सर्दी की धूप सी वो यादें,
उन लम्हों को मुरझाने दो
अब उनको फिर आबाद न कर।
तुम दूर वहां पर रहते हो
हम आज यहां पर रहते हैं,
इन यहां-वहाँ के किस्सों में
यूँ वक़्त तू अब बर्बाद न कर।
— अमिताभ ‘आलेख’
अमिताभ बहुत अच्छी बात कही है तुमने. लेकिन क्या भूलना इतना आसान होता है?
कविता आपको पसंद आई शिशिर इसके लिए शुक्रिया । बात तो आपकी सच है की भूलना इतना आसान नहीं । ये तो बस एक कवि की कल्पना है की यदि बीते पलों को भुलाकर आगे बढ़ा जाये तो क्या ही अच्छा हो ।
धन्यवाद ।
भूत से निकलकर भविष्य को केंद्रित करती सुनहरी रचना !!
सही कहा आपने धर्मेन्द्र जी… धन्यवाद ।