तेरी आँखों में वो अफ़साना पढ़ने लगा हूँ मैं।
तेरे दिल की धड़कनों को भी समझनें लगा हूँ मैं।।
क्यूँ कर नही पाते हो तुम दिल-ए-इज़हार।
ये राज़ भी थोड़ा थोड़ा समझनें लगा हूँ मैं।।
दिल-ए-आरज़ू मेरी ज़रा तू भी तो समझे।
तेरा हाल-ए-दिल अब समझनें लगा हूँ मैं।।
आँखों में तेरी मैंने कई बार पहले झाँका।
अब गहराइयों को उनकी समझनें लगा हूँ मैं।।
जब तक न तुम मिले थे था मैं महफ़िलों की शान।
अब तन्हाइयों को भी समझनें लगा हूँ मैं।।
संभाले नही संभलते अब ये दिल-ए-जज़्बात।
दिल-ए-बेचैनियों की फ़ितरत समझनें लगा हूँ मैं।।
— अमिताभ ‘आलेख’
Kya baat hai. Aanand aa gaya
bahut abhaar shishir ji.
जज्बातों को उजागर करती अच्छी ग़ज़ल
धन्यवाद धर्मेन्द्र जी ।