कभी यूं भी हो कि तुम सज सँवर कर सो जाओ।
और फिर मैं फ़ुर्सत से निहारूं तुम्हे देर तलक।।
तुम्हारे शबनमी होंठ, जैसे मय के प्याले।
तुम्हारे माथे की बिंदिया, जैसे चांदनी फूट रही हो।
तुम्हारे वो गुलाबी रुख़्सार, तुम्हारा वो रेशमी जिस्म।
और उस जिस्म पे वो चांदी का कमरबंद।
मैं एक टक तुमको देखता ही रहूँगा बस…
करवट बदलने पे तुम्हारी पाजेब की वो छनक कितना सुकून देगी मेरे इस दिल को।
झरोंखे से आया हवा का झोंका जब तुम्हारी ज़ुल्फ़ उड़ाएगा और तुम अपने मासूम चेहरे से उन ज़ुल्फ़ों को हटाओगी तो तुम्हारे कंगन की खनक से लगेगा मानो अब बरसात हो ही जायेगी।
मगर शायद ये हक़ीक़त कभी मुकम्मल नहीं होगी।
क्योंकि ज़िंदगी की जद्दो जहत में तुम्हे सजने संवरने का वक़्त नहीं और घर के लिए दो रोटी जुटा पाने के सिवा मुझे फ़ुर्सत नही।।
— अमिताभ ‘आलेख’
अति सुन्दर, भावो से युक्त अच्छी रचना !!
अनेक धन्यवाद !
श्रृंगार एवं जीवन की विवशताओं का सुन्दर चित्रण
तहे दिल से धन्यवाद !