पंछी!कौन दिशा से आए तुम
अपने पंखों से लिपटा कर
एक भीनी सी खुश्बू लाए तुम।
ये मीठी सी खुश्बू,
जानी पहचानी लगती है।
मेरे घर आंगन के बीच,
क्या अब भी महफिल सजती है?
मेलों-ठेलों की चर्चाएं
क्या अब भी रसीली लगती हैं?
मांए बेटी की विदाई पर
क्या अब भी आँखें भरती हैं?
अपनी गौरया के खोजों को
क्या उनकी आँख तरसती हैं?
पंछी अब के जाओ तो
अपने पंखों की चादर पर
थोड़ा सा लिपटा कर
उस सौंधी सी माटी को
उन बचपन की यादों को
तुम मेरे लिए लेते आना।
“मीना भारद्वाज”
Wonderful feelings about the previous life of a married woman at her birth place.
Thanks Shishir ji !
समय ने शिला पर दिए चित्र इतने
गिला ही मिला रेखाएं थीं ओ अपनी |
जमाने ने बदला जलालत के सपने
बदलने की ताकत दिखाओ हो अपने ||