सफर जिंदगी का आज कुछ थम सा गया है
दौर गुजरे पलो का फिर से लौट आया है |
ना आज इम्तिहान है कोई ,
ना ही किसी का इन्तेजार है |
अधूरी जिंदगी पड़ी है यहाँ
या फिर सितम की मार है |
ना अब ख्वाहिशे कोई है,
ना हसरतो का मेला है |
राह में चलने को आज ,
मुसाफिर पड़ा अकेला है |
ना मंजिले है खोई ,
ना रासते नए है |
बूढ़े हुए सपनोे पे ,
छज्जर नए पड़े है |
सपनो को पूरा करने में,
अधूरे अपने ही सपने रह गए|
होक शामिल सोहरतो में उनके
हम मुकद्दर से दूर रह गए |
तालीम की बंदिशों में बन्ध के
इश्क़ को खुद बनाना चाहा ,
फरामोशी के चेहरों में हमने
एक नूर तलाशना चाहा |
यह रचना भी उत्तम है. आज के दौर में अकेलेपन का एहसास कराती है.
उत्साहवर्धन के लिए आपका सहृदय धन्यवाद ..
वर्तमान शैली का आभास कराती अच्छी रचना !!
धन्यवाद मित्र ..