न जाने कितने प्र्शन लिए
मैं तेरे चरणों में आयी
उलझे मन को सुलझाने में
न तू ने देर लगाई.
लगा मुझे तू सब सुनता है
फिर भी मैं घबराऊँ
देखूं तेरे नैनों में
तो असमंजस में पड़ जाऊँ
बिना कहे सबकह देता है
धीरज मन को दे देता है
अब और कहाँ. मैं जाऊं
कैसा बांधा तूने कान्हा
चैन, तेरे चरणो में ही पाऊँ
छीन लिया है हक़्क़ दुनिआ से
की अब वोह मुझे सताए
जिसके पास है साया तेरा
भला फिर वोह क्यूं घबराये
धुन बंसी की. मधुर मधुर
यह कैसा. राग सुनाये
सतरंगी दुनिआ का मानों
हर रंग फीका पड़ जाये
सदा पास बने रहना तुम
श्वास श्वास में बसे रहना तुम
जब प्राण पंखेरू उड़ जाएँ
तब भी साथ बने रहना तुम
प्रेम की शक्ति को पाने का सुन्दर प्रयास !!
धन्यवाद निवतियां जी
कृष्ण भक्ति के उच्च सोपान पर पहुचने का संकेत करती उत्तम कविता. एक दो जगह सुधार की आवश्यकता है. जैसे, सुझाने की जगह सुलझाने, कियु की जगह क्यूँ, दुनिआ की जगह दुनिया. बीच में एक स्थान पर लय के लिए सोचा जा सकता है किन्तु आवश्यक नहीं.
धन्यवाद शिशिर जी ,टाइपिंग करते समय स्पेलिंग में गड बड् हो जाती है .आगे से मैं ध्यान रखूंगी