उठ प्रातः चला मै कर्म पथ पर
हो अपनी दिनचर्या में गुल
लोगो के उस झुण्ड में घुसा
होते शक्ति प्रदर्शन में मशगूल
कुछ देर धीरज बंधाये रखा
खुद को किनारे दबाये रखा
अगले स्टेशन बढ़ आई लोगो की भीड़
फिर भी खुद को ढांढस बंधाये रखा
लोगो के उस भीड़ ने
काफी मशक्कत मुझसे करवायी
इतनी परेशानिया क्या कम थी
जो पुरुषों का झुण्ड किन्नर बन आयी
कहते पैसे दो दो-चार
या फिर वरना तुम खाओ मार
पैसे देना सहज दिखा
बदले में खाने को उसके मार
सोचा शिकायत करू रेल प्रशासन से
मुक्ति दिलाऊ सब को मै इससे
पर यहाँ तो माजरा ही बड़ा था
हफ्ता लेने को उनसे रेल अधिकारी खड़ा था
कुछ सोच समझ आगे मै बढ़ा
तभी सामने था आर.पि.फ. वाला खड़ा
कर रहा था हिसाब-किताब
ट्रैन में अवैध विक्रेताओ से
हफ्ता मेरा बाकि है पिछला
वो भी अभी ना चुकाया है
खिलाके नशीला पदार्थ लोगो को
पैसे तूने खूब बनाया है
तब तक वह विक्रेता बोला
साहब पकडोना सौ की पत्ती
काहे को सुबह-सुबह तुम
धंधे की करते हो खोटी
यह सुन वह कुछ सकुचाया
सौ की पत्ती पकड़ दूसरे को फिर मुर्गा बनाया
समझ गया मै करतूतो को इनके
जिनसे अब तक था मै अँधा
ये वो पगार के गुंडे है
जिनको मिली है वर्दी करने को धंधा
बढ़ चला मुह मोड़ कर्म पथ पर मै अपने
छोड़ इनसे आज़ादी के सपने
ये तो रोज की बला है ,जो ना कभी टला है
इनके संग ही है अब जीना
रेलवे करे मौज और पब्लिक बहाये पसीना ..
जीवन के कटु सत्य के मध्य से गुजरती जिंदगी का सरल वर्णन !!
धन्यवाद मित्र ..
ज्वलंत समस्या एवं व्यवस्था पर चोट करती रचना
धन्यवाद मित्र..