पके हुए बादलों पर वो नाचती लकीरे
और भुनी हुई मिट्टी का महकना धीरे धीरे
पानी को बोझ ढोते ढोते थककर थम जाना
ठहाकों के कोलाहल से थर्राकर सहम जाना
गोलमटोल बूँदों का गिरना आसमान से छूटकर
और नंगे पाँव आँगन में फिर उछलना फूटकर
जमी तिलमिलाहट का वो पल में पिघल जाना
बेजान सी गर्मी का फिर खुशी में ढल जाना
नई नवेली बारिश का वो मीठा मीठा पानी
साथ वो हो या उन की याद, हो जाए रोमानी
– अमोल गिरीश बक्षी
अति सुन्दर …………!!
not so good….×××××
बहुत सुन्दर कविता है
not so gud..its not making good sense