गूंगो बहरे पहले से थे,
अब अंधे भी गए !
पढ़े लिखे नौजवान देखो,
भक्त अंधे हो गए !!
सच्चाई से नही लेन-देन,
झूठे वादो में खो गए !
सोच समझ से काम न ले अब,
लकीर के फकीर हो गए !!
पहले तो थे हम अनपढ़ गंवार ,
इसलिए पीछे रह गए !
आज हुए हम शिक्षित विद्वान,
चापलूस बनकर रह गए !!
कल तक जिन्हे अपना समझा
आज वो पराये हो गए !
हुआ असर धन दौलत का इस कदर
रिश्ते जिनमे कहीं खो गए !!
इस कदर भटके है लोग आज
उसूलो से बहक गए !
भूल गए संस्कार और संस्कृति,
विकृति के हवाले हो गए !!
गूंगो बहरे पहले से थे,
अब अंधे भी गए !
पढ़े लिखे नौजवान देखो,
भक्त अंधे हो गए !!
!
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!! डी. के. निवातियाँ !!
आज की कड़वी सच्चाई को उजागर करती तथ्यपरक रचना.इस समय के अनुरूप न ढल सकने वाले लोगों का आज बुरा हाल है. कविता आईना दिखाने का काम करती है.
धन्यवाद शिशिर जी ,
सही कहा आपने, हम सब को मिलकर इसके लिए प्रयास करना होगा !!
निवतियां जी अच्छी कविता है .समाज की सोच बदलेगी तो देश बदलेगा .आवाज़ उठानी चाहिए
धन्यवाद किरण जी !
आज के दिशाहीन नवयुवको का अच्छा मार्गदर्शन अति आवश्यक है !
अच्छी रचना !!”””
शुक्रिया मित्रवर !!