आज मेरे जीवन में जो तन्हाई और खामोशी है
गैर नहीं हैं उसका कारण हम ही उसके दोषी हैं।
मीत समझ कर जिनको हमने बढ़ कर गले लगाया था
चलती फिरती उन लाशों में अपना ना कोई हमसाया था
लाशें तो लाशें होती हैं आलम वीरान बनाती हैं
शमशानों में जीवन की खुशियाँ कभी ना आती हैं
फिर भी हम जीते जाते हैं मन में कोई आस लिए
बेमतलब जिन्दा रहने की जाने ये कैसी मदहोशी है।
आज मेरे जीवन में जो तन्हाई और खामोशी है
गैर नहीं हैं उसका कारण हम ही उसके दोषी हैं।
एक समय था सबसे मिलकर हम भी चहका करते थे
प्रेम सुमन मेरी जीवन बगिया में महका करते थे
मौसम ने ना जाने फिर ये कैसी करवट बदली
पुष्प झड़ गए महक उड़ गई शेष रहा ना कुछ असली
गैर जो होते मेरे दुश्मन तो भी गम की कोई बात ना थी
अपने जीवन की सारी विष बेलें पर हमने ही पाली पोसी हैं।
आज मेरे जीवन में जो तन्हाई और खामोशी है
गैर नहीं हैं उसका कारण हम ही उसके दोषी हैं।
दुनिया की चतुराई को हम जो काश समझ जाते
अपने लोगों के कड़वे धोखे फिर हमको ना तड़पाते
देर हो गई अब तो लेकिन हम शिकार हैं बन बैठे
हमसे छल करने वालों के मस्तक हैं कितने ऐठें
ध्यान से देखोगे तुम जो तो इतिहास यही बतलाता है
अन्याय कभी जीता ही नही सच तो होता संतोषी है।
आज मेरे जीवन में जो तन्हाई और खामोशी है
गैर नहीं हैं उसका कारण हम ही उसके दोषी हैं।
आज जो है वो कल ना था और कल भी शायद ना होगा
लेकिन अपने कर्मों के फल को सदियों से मानव ने भोगा
झूठ बोलकर चालें चलकर जिसनं ये आग लगाई है
कितनी भी वो कोशिश कर ले होनी उसकी रुसवाई है
ये तो वक्त के खेल हैं प्यारे सब कुछ सहना पड़ता है
कल तक जो कहलाते थे जाहिल वो ही आज मनीषी हैं।
आज मेरे जीवन में जो तन्हाई और खामोशी है
गैर नहीं हैं उसका कारण हम ही उसके दोषी हैं।
शिशिर “मधुकर”
आत्म मंथन को प्रेरित करती सुन्दर रचना !!
उत्साहवर्धन के लिए बहुत बहुत शुक्रिया निवातियाँ जी
गैर नहीं हैं उस का कारण हम ही इस के दोषी हैं —-
बहुत सही और भावपूर्ण कविता ।
शुक्रिया बिमला जी
बहुतही बढीया रचना है
Thanks
Nice ,dil ko chho jaati hai
Thank you very much Kiran Ji
मधुकरजी…आप ने किसी की रचना की प्रतिकिर्या में लिखा था की आपने भी तन्हाई के ऊपर रचना लिखी है…आज पढ़ी है…और सोच रहा हूँ की इतनी देर क्यूँ लगाई इसको ढूँढ़ने में….लाजवाब भाव…लाजवाब…….बहुत ही खूबसूरत आंतरिक विश्लेषण करती रचना….यूं तो हर पंक्ति बहुत ही नायाब है…पर जो अंतःकरण में कहीं गहरी उतरती है वो जिसमें सार समां गया पूरे सच का….
“ध्यान से देखोगे तुम जो तो इतिहास यही बतलाता है
अन्याय कभी जीता ही नही सच तो होता संतोषी है।”
सच ही तो है…बिना संतोष के हर वास्तु व्यर्थ है….और सच जो सिर्फ परमात्मा है….बिना संतोष के कहाँ मिलता है….मुझे तो नहीं लगता की मिलता है…..
Thanks Babbu ji for such a sincere and touching remark. I shared your comment even with my wife.