दादी – दादी मुझे पढ़ाओ,
ढेरों फिर तुम बात बताओ
खेलो दिन और रात मेरे संग
करूँगा तुमको जी भर के तंग
मम्मी सुबह जगाती है,
फिर मुझको नहलाती है,
रोता हूँ मैं जी भर लेकिन
दया उसे नहीं आती है.
छोटा हूँ मैं घर में सबसे
बड़ी बड़ी किताबें हैं
करना चाहूँ बात मैं सबसे
ढेरों पास में बातें हैं
मम्मी, काकी करतीं काम,
खाना वही बनाती हैं
कंप्यूटर पर करतीं खिट-पिट
टीवी दिखा, सुलाती हैं
काका, पापा के आने पर
पास में उनके जाता हूँ
कहते हैं वह थके बहुत हैं
मन मसोस रह जाता हूँ
दादी तुम रहती क्यों दूर
समझ नहीं यह पाता हूँ
गर्मी की छुट्टी में ही क्यों
गाँव तुम्हारे आता हूँ.
वहां थे आयुष और अनुकल्प
दिल्ली में नहीं कोई विकल्प
साथ रहो या साथ ले चलो
दादी मानो यह संकल्प.
– मिथिलेश ‘अनभिज्ञ’ (Bal Kavita by Mithilesh)
Very touching and realistic
धन्यवाद शिशिर जी 🙂
Cute poem
Cute poem
धन्यवाद किरण जी.
बाल स्वरुप की भावनाओ का सुंदर चित्रण !!
धन्यवाद 🙂