शक्ति नहीं है तन में अब और आत्मा कमजोर है
शुद्धता मिलती नहीं ये मिलावटों का दौर है।
लालच में हमनें सोच को कुछ इस कदर गिरा दिया
यूरिया और डिटरजैन्ट बच्चों के दूध में मिला दिया
मसालों में अब ना स्वाद है ना औषधीय धार है
बिन खुशबू के गुलाब का गुलकन्द भी बेकार है
अन्न में ताकत नहीं और दाल में प्रोटीन कम
ये तरक्की हो रही है या पीछे जा रहे हैं हम
कानून है पर मिलावटखोरों को इसकी कोई परवाह नहीं
रोकने वाले इसे अफसर जो रिश्वतखोर हैं।
शक्ति नहीं है तन में अब और आत्मा कमजोर है
शुद्धता मिलती नहीं ये मिलावटों का दौर है।
सरकारी घरों में कफन बांधे अब यहाँ रहते हैं हम
जिनके बनने में लगा है रेत ज्यादा सीमेंट कम
कैसे करें विश्वास उनका जो कहते हैं सब असली है
इस कलयुगी बाजार में तो दवाई तक भी नकली है
ताजी हवा मिलती नहीं अब तन बदन कैसे खिले
अब तो मुहब्बत चल रही है दिल मिले या ना मिेले
इस गन्दगी से चाह कर भी कैसे कोई निकले यहाँ
आज की इस दुनिया के जब दिल में बसा इक चोर है।
शक्ति नहीं है तन में अब और आत्मा कमजोर है
शुद्धता मिलती नहीं ये मिलावटों का दौर है।
कहनें को आजाद हुए हमको हुए अड़सठ बरस
सम्मान से जीने को यहाँ जनता रही अब भी तरस
जाने से पहले गोरे हमको फूट का फल दे गए
हम को लड़ा आपस में वो सुख चैन सारा ले गए
नेताओं में भी अब यहाँ बस गुण्डो की भरमार है
और अपनें प्राणो को बचाने जनता हुई लाचार है
गद्दी की खातिर देशमें कुछ इस तरह हवा चली
हर कौवे को लगने लगा कि वो ही असली मोर है।
शक्ति नहीं है तन में अब और आत्मा कमजोर है
शुद्धता मिलती नहीं ये मिलावटों का दौर है।
शिशिर “मधुकर”
nice
धन्यवाद हितेश जी
शिशिर मधुकर जी आपने सम्भवतः हर उस चीज को लिखा जिसमें मिलावट ही मिलावट है…. सैल्यूट करता हू आपकी सोच और रचना करने की गहराई को… अति उत्तम रचना।……
Thank you very much Surendra for going through this work.
अत्यन्त सुन्दर कटाक्ष…………बहुत अच्छी रचना.
Thank you so very much Vijay for reading and commenting.