।।ग़ज़ल।।धोखा खा रहा हूँ मैं।।
गज़ब की आह है तेरी कि भरता जा रहा हूँ मैं ।।
तुम्हारी इक अदा भर से मरता जा रहा हूँ मैं ।।
न मिलती तू ,न जलता मैं तड़पकर, गम की गर्दिश में ।।
लगी है आग तन मन में ,जलता जा रहा हू मैं ।।
न जाने क्या मिला मुझको तुम्हारी आँख में ,हमदम ।।
अँधेरा छा रहा मन में ,बढ़ता जा रहा हूँ मैं ।।
तुम्हे ही देख पाता हूँ यहाँ ,दिल के उजाले में ।।
नही है रास्ता कोई पर चलता जा रहा हूँ मैं ।।
नही मालूम है मुझको न कोशिस की कभी मैंने ।।
मंजिल पा रहा हूँ मैं कि धोखा खा रहा हूँ मैं ।।
अभी सुरुआत होगी पर सफाई मैं नही दूँगा ।।
तन्हा हूँ ,अकेला ,पर सकूँ तो पा रहा हूँ मैं ।।
……..R.K.M
क्या बात है ….अच्छी रचना !!
अति सुंदर !!
नही मालूम है मुझको न कोशिस की कभी मैंने ।।
मंजिल पा रहा हूँ मैं कि धोखा खा रहा हूँ मैं ।।
हर चाहने वाले की मनोदशा दिखाते सुन्दर शब्द.
आप सभी का बहुत बहुत आभार ।।