गिर गिर कर फिर संभल जाती है ज़िंदगी |
हर हालात में मुस्कुराती है ज़िंदगी ||
मेरी हार पर जब-जब आँख रो देती है,
तब मुझे फिर चलना सिखाती है ज़िंदगी ||
अँधेरों से रोज पड़ता है पाला मेरा,
हर रोज मुझे राह दिखाती है ज़िंदगी ||
बुत हम भी थे बुत वो भी थे पत्थर के मगर,
मुझे पिघला अब उन्हें पिघलाती है ज़िंदगी ||
क्या है मेरा अपना जिस पर इतराऊँ मैं,
मेरे वजूद को मुकाम दिलाती है ज़िंदगी ||
# महेश कुमार कुलदीप ‘माही’
शानदार पंक्तियाँ !!
धन्यवाद ! निवातियाँ डी. के. जी |