इस कदर इक मोड़ पर छोड़ गया तू मुझे
पीछे मुड़ना तो दूर एक नज़र फेरी भी नहीं…
तुझे जब खुद उस अकेलेपन का एहसास हुआ
तो फिर तू उसी मोड़ पर मुझसे मिलने आ गया …
पर बदकिसमति तो देख अपनी
अब वो मुलाकात तेरे हिस्से में नहीं ……….
अपने शान की खातिर मेरे दिल के ज़ख्मों को कुरेदकर
ठहाका लगाते हुए तू चला गया ….
पर जब वो ज़ख्म किसी और से तुझे मिली
तो फिर मेरे कुरेदे ज़ख़्म पर मरहम लगाने आ गया…
पर बदकिसमति तो देख अपनी
अब वो मरहम-ए-हक़ तेरे हिस्से में नहीं ….
मेरी कश्ती को पतवार दिए बिना
तू बीच मजधार मुझे तन्हा छोड़ चला गया …..
जब खुद तुझे नया साहिल मिला नहीं
तो छोड़े हुए मेरे कश्ती को किनारा देने आ गया…
पर बदकिसमति तो देख अपनी
अब वो कश्ती की सवारी तेरे हिस्से में नहीं …..
उपजती ज़िंदगी को मेरे पलभर में
उसे तू बंजर बना के चला गया …
जब खुद की ज़मी पर बीज उपजी नहीं
तो मेरे ज़मीं का किस्सा बनने फिर आ गया …
पर बदकिसमति तो देख अपनी
मेरे बीज का किस्सा अब तेरे हिस्से में नहीं ..
बेहतरीन ।। रचना ।।
धन्यवाद राम केश मिश्र सर….
अति सुन्दर !!
धन्यवाद निवातियाँ सर….
कविता अच्छी लगी।