किया क्या था कसूर मैंने ,मुझे कुछ समझ आया नहीं
सब कुछ खोकर भी मैंने कुछ पाया नहीं;
मेरी खोटी किस्मत ने भी मुझे कुछ दिलाया नहीं |
खाई ठोकरे दर दर की फिर भी कोई अपनाया नहीं ;
पूछा सबसे अपने घर का पता पर किसी ने भी बताया नहीं |
किया क्या था कसूर मैंने ,मुझे कुछ समझ आया नहीं ||
तुफानो से लड़ी मैंने मुश्किलों से जूझी ;
अब तो मेरी तकदीर की दिया भी है बुझी |
नयी उड़ान के लिए कोई तरकीब भी नहीं सूझी ;
हमेशा एक नयी कश्मकश और परेशानी में उलझी |
किया क्या था कसूर मैंने ,मुझे कुछ समझ आया नहीं ||
माँ-बाप ने तब ठुकराया जब मुझे थी अक्ल नहीं;
आज अक्ल है तो उस माँ-बाप का भी पता नहीं |
मेरे पास उनके लिए कुछ ज्यादा सवाल नहीं;
बस एकबार मिलते तो पूछती क्या उन्हें मुझपर रहम आया नहीं ?
किया क्या था कसूर मैंने ,मुझे कुछ समझ आया नहीं ||
मुझे भी हक़ था अपनों के साथ जीने का ,
लड़की होना मेरा फैसला नहीं वो फैसला था खुदा का ;
फिर आखिर क्यों नहीं मिला प्यार मुझे अपनों का ;
मुझे ही क्यों लेना पड़ा आश्रय इस अनाथालय का |
किया क्या था कसूर मैंने ,मुझे कुछ समझ आया नहीं ||
अए नादान दुनिया वाले ,लड़की होना गुनाह क्यूँ ?
अगर गुनाह है तो तेरी माँ बहन पत्नी औरत का रूप क्यूँ ?
फिर तेरे घर में माँ दुर्गा और लक्ष्मी की पूजा क्यूँ?
पत्नी सुन्दर लड़की का रूप और औलाद चाहिए नहीं लड़की ऐसा क्यूँ?
किया क्या था कसूर मैंने ,मुझे कुछ समझ आया नहीं ||
अच्छी रचना !!
इसी क्रम मे लिखिये !