मिले तुम्हारे ख़त पुरानी दराज में |
अभी तलक है ज़िंदा उसी रिवाज में ||
कम नहीं उदासियाँ तन्हाइयाँ मेरी,
सिमट पाती नहीं मेरे तो मिजाज़ में ||
कदम तुम्हारे रुके रुके से थे लेकिन,
असर न था मेरे इश्क़ की आवाज़ में ||
बड़े बेरहम हैं होते जमाने के दस्तूर,
ज़रा भी नरमी नहीं रखता लिहाज़ में ||
आसान मत समझ ‘माही’ संग्राम को,
ज़िंदगी लुट जाती है तख़्त औ’ ताज में ||
:- महेश कुमार कुलदीप ‘माही’
+8511037804
जयपुर, राजस्थान
काफी अच्छे भाव है।
शुक्रिया !!!