मेरी तीरगी के चराग सब एक एक कर के हैं बुझ रहे
कभी जिनसे मेरा वक़ार था वही आज मुझसे हैं छुप रहे
न है जुगनुओं की ही रौशनी न किसी शमा का ही साथ है
मेरे साथ जितने भी साये थे सभी अपनी सूरत बदल रहे
थे तराशें मैने बुत जो भी, न जाने क्यों वो पिघल रहे
जिसे मैंने संगमरमर समझ लिया वही मोम के अब निकल रहे
मुझे रौशनी की तलाश थी, होगी सेहर थी ये ज़ुस्तज़ू
अब वजूद हैं अंधेरों में ,अरमां भी सब मेरे निकल रहे
मेरे अंदर भी अजीब शख्स है, जिसके ख्वाब अभी है सज रहे
उसे तीरगी का भी डर नहीं, न जूनून उसके हैं तज रहे
हैं सफर में मेरे भंवर कई, मेरी कश्ती का मुस्तक़बिल लिए
पतवार उसके हाथों की उस पार मुझको हैं कर रहे
–नितिन
ऐसे ही लिखते रहिये !!
thank you….haan agar pasand ki jaati hai kavita to likhne ke liye inspiration milti hai