बादल के परछाई के पीछे चल दिए
नंगे पैर,
टूटी,बिखरी उम्मीद लिए
चल पड़ी बेखबर सी
झूठे सपनो को लिए
बादल जिसका पीछा किया
खेलता आंख मिचोली
जा छुपता धूप के आट में कभी
तो कभी असमान में हो जाता गुम
हम बस पीछे रहे बादल के
मन में लिए एक धुन
धुंध सी जो आँखों पर छाई है
हटती ही नहीं
बादल जिसकी परछाई है, बरसती ही नहीं
थक गया मन
बादल के पीछे-पीछे
बस बरसे वो बदल बन अमृत मुझपे
आंख मूंद होजाऊ
उस बादल की परछाई में गुम
रिंकी
Rinki ji, bahut achchha prayas ,aapki ye kavita aapke soch ki gahraayi ko darsata he. Sabdon ka santulit upyog kiya he aapne.
apna suprayas jaari rakhe, aapke agle kavita ka intzaar rahega 🙂
Thanks for your appreciation
Its a nice poem of you. I am also a poet .I am highly impressed with u .
Thanks Abhishek for your appreciation.