प्रातः काल का वेला था
फूलों संग बाग में
माली अकेला था ,
मनोहारी दृश्य देख वह
मन ही मन हरसाया
कापता हुआ हाथ
वह अपना
उसके तरफ बढाया।
फूल झुझलाई भव चढ़ाई
माली संग आँख मिलाई
और बोली चिल्लाकर ,
“मरना है तो मारो
कही और जा कर “।
माली रुक कर
प्यार से बोला
“क्या तुम्हें नहीं पता ,
तुम्हें इस योग्य बनाने में
हमने कितना खुन पसीना बहाया “।
फूल बोली इठलाकर कर
“यह भाग्य दोश है
पूर्व जन्म का योग है ,
मैं जो भी , स्वयं हूँ
किसी के गले में किसी के शिस पर
या
देवों के चरण में रहती हूँ ,
सभी हमें पाना चाहते
अपना प्यार जताना चाहते “।
माली से रहा नहीं गया ,
फूल को फिर समझाया।
“मैं तेरी उचित पोषण
नहीं करता ,
चेहरा तेरा मुरझाया रहता ,
समय से पहले तुझे
तोड़ देता,
यु हीं झड़ जाती
अपना संतती भी
नहीं बढ़ा पाती ,
सर-गल किसी कोने में
बदबु फैलाती।
यह समय की मार है
तुझे पालने को मेरा दिल
लचार है। ”
मैं दूर खड़ा था
सोचने को मजबुर पड़ा था ,
मेरा दिल कहा
यह समय की मार है
जो बाग-बगीच लगाया
उसी को बाहर बिठाया ,
हर माली का यही हाल
सभी फूल बजाय गाल ,
अपना मानना है
पहचान बनाओ
होने का एहसास दिलाओ।
आप जानना नहीं चाहेंगे ?
वह माली और वह फूल कौन ,
मैं आपको बता दु ,
हर माँ-बाप माली
उनके बच्चे फूल
यही है
जीवन का उसूल ।
प्रस्तुतकर्ता नरेन्द्र कुमार
नरेन्द्र भाई बहुत अच्छी कविता है !!!
धन्यवाद प्रयाश जरि है देखता हूँ रचनाकारों में नाम कब तक आता है।
धन्यवाद श्रीमान प्रयाश जारी है
बहुत खूब जी