हृदय छुपी इस प्रेम अग्नि में जलन है कितनी जानूँ मैं।
मैं भटक रहा प्यासा इक सावन विरह वेदना जानूँ मैं।
पर्वत,घाटी,अम्बर,नदिया जल सब नाम तुम्हारा लेते हैं।
अम्बार लगा है खुशियों का फिर भी अश्रु क्यूँ बहते हैं?
मिथ्या दोषी मुझे कहने से क्या प्रीत मिटेगी बरसों की
नयन कह रहे थे जो तुम्हारे वो बात अनकही जानूँ मैं।
कुछ तो विवशता रही तुम्हारी शीष झुका कर दूर गए।
इक छोटा सा स्वप्न सजाया तुम कर के चकनाचूर गए।
पुनः मिलन को आओगे तुम विश्वास का दीप जलाया है
थमने न दोगे श्वांस की गति को प्रीत है कितनी जानूँ मैं।
वैभव”विशेष”
Bahut badiya