बिन्दू बिन्दू जोड़ जोड़ के
रेखाओं का खेल खेलते
मैं और तुम –
मेरी रेखा -तेरी रेखा
मैंने खींची -तूने खींची,
खेल खेल में कितनी दीवारें –
खेल खेल में कितनी दरारें –
अधिकारों का अहंम पालते
मैं और तुम –
मेरा धर्म -तेरी जाति
मेरी भाषा -तेरी ख्याति
द्वेष ईर्ष्या में संलग्न
अपना अपना स्वार्थ सबल
मन्दिर मस्जिद ईष बांटते
मैं और तुम –
अन्जाने में कितने घेरे
खींचे हम ने चारों ओर
टुकड़े टुकड़े धरा बंट गयी
सिमटा सहमा सा आकाश
एक थे हम अब हुए एकाकी
मैं और तुम –
विवेक रहा, ना एकीभाव
प्रेम रहा, ना रहा सदभाव
क्षत -विक्षत अब मानवता
अटल अकम्प है दानवता
शीश काटते -शीश कटाते
मैं और तुम –
अन्धी गलियां -बन्द दरवाज़े
ग्रसित हुई उन्मुक्त हवा
सीमा बद्ध -विवश हैं सांसें
गलियारों से गगन निहारें
पंख कटे पखेरू जैसे
मैं और तुम –
अहिंसा का कोई पाठ पढ़ा दे
शान्ति की कोई राह दिखा दे
स्वाभिमान से जीना सिखा दे
भय, भ्रान्ति का राज्य मिटा दे
मैं और तुम का भेद मिटा दे
साथ चलें फिर एक हो हम!
__ _________ बिमल
(बिमला ढिल्लन)
Bahut pyari line likhi apne!!
Thank you, Anuj
dil ko chho gaye aapke shabd ….
Thank you, Dear Sandhya, for appreciation.
words ka sahi use kiya aapne..ise asrdaar poem bnane me…aur aap safal rhi…congrats…
Thank you, Grijesh, for such encouraging words. Thank you.
मैं मन्त्रमुग्ध हूँ आपकी रचनाएँ पढ़ कर.