मकई के निकलते धनहरे
मूंज का भुआ
गेहूं की हरी बालियां
मटर के फूल व फूलों में नन्हीं छिमीयां
लहलहाते अरहर के गुच्छे
राई व सरसो के हरे खिलखिलाते पौधे
जिसमें सफेद व पीले फूलों का भरमार
जगह जगह कट रहे गन्ने के खेत
गांव गांव चल रही कोल्हू
गले में बज रही घण्टी बैलों की
एक एक बढ़ते पग के साथ
कराहे मेंं बनता महीया फिर मीठा
बच्चे पत्ते की दोने में लकड़ी की सीक से
अनवरत चाटते महीया व खाते गरम गरम मीठा
मुंह में लपेटे व भिनकती मांछीयों के साथ खेलते कूदते
खेत खेत बैठीं स्त्रीयां खोंटने बथुआ की साग
अठखेलियों के साथ गाती हुईं फाग
उछलता कूदता गइया का नवजात बछड़ा
कूदफांद कर खराब करता केनवाई खूरों से
न जाने कहां से आया बंदरों का झुण्ड
किसी की आंगन से उठा लातें हैं रोटी
झकझोर देतें हैं आॅगन में लगा महावीर जी का लाल झण्डा
तोड़ देते हैं टीवी वाला अण्टीना
उठा ले जाते हैं छानी से भतुआ
साथ में कोहड़ा और लौकी
अब यही कहेंगे सबसे
या फिर कहेंगी तितलियां
जिन्हें पता है हवा की सही दिशा
वातावरण का गंध
फूलों पत्तों की खिलखिलाहट
जनवरों, कीड़ों मकौड़ों, पंक्षियों और
पौधे पौधे की मन की सुगबुगाहट
दूर कहीं दूर, जहां वो जाती है
प्रतिदिन घूमने विचरने
वहां से किसी के आगमन की आहट
हां , तितलियां कहेंगी
फूल फूल पर
पत्ते पत्ते पर
छान छान पर
दीवार दीवार पर
मुंडेर मुंडेर पर
गमलों पर
छत पर
रेंगनी पर टंगे कपड़ों पर
बैठ बैठ कर
अपनी रंग बिरंगी पांखों की अठखेलियों से
ऋतु का मिजाज
मौसम का चरत्रि।
आपके कविता बहुत अच्छा लगा ,
अपने गांव के विंहगम दृश्य प्रस्तुत किया ……..
बहुत सुन्दर // शुभकामनाये आपके साथ //
dhanywad dushyant ptel ji