पेट की भूख,
जीने की ज़रुरत
मजबूर कर देती है,
वो आराम से जीना,
हर ज़रूरत का पूरा होना
मजबूर कर देती है,
बहुत है पैसा
और पाने की इच्छा,
मजबूर कर देती है,
अपनी इज्ज़त को,
ताक पर रखने के लिए
मजबूर कर देती है,
ग़र आवाज़ उठाते हो,
तो जो मिलता हो,
वो भी खो देते हो,
ये सोच कर
फिर मजबूर कर देती है,
ये ज़िन्दगी |
बी.शिवानी
Nice poem shivani ji
Its relevant lines. Keep it up
Thank you sir for encouraging.