उम्मीदों भरे तेरे शहर से
नाउम्मीदों की पेाटली बांधे
निकल पड़ा उस पार
खेत यहीं रह गए
रह गई तेरी उम्मीदों के स्वर
बस मैं चलता हूं तेरे उम्मीदों के शहर से।
अगर मेरी बेटी पूछे
कहां गए बाबा
तो समय हो तो कह देना
खोजने गए हैं नई उम्मीद की खेती
जहां सूखा
बाढ़
हारी बीमारी
नहीं उजाड़ती जवान फसल
जहां कर्जदारी नहीं होती,
बस एक चीर शांति होती हो
लेकिन तेरे पिता वहां भी चलाना चाहते थे हाल
उगाना चाहते थे धान
चना,
बाजरा
बिदा करना चाहते थे
इस लगन में तुम्हें
लेकिन यह भी मौसम के मानिंद
उजड़ गया
कि ज्यों उजड़ जाती ही आंधी में मड़ैया।
उम्मीदों के तेरे शहर में
आया था लेने कुछ बीज
उम्मीदों की
घोषणाओं की
लेकर बीज क्या करता
कहां किस खेत में डालता,
यही सोच सोचकर
तेरे साफ सफ्फाक शहरियों के बीच से जा रहा हूं
निराश नहीं हूं
किसान हूं
जेठ बैशाख हो या भादो
हमारा मन भर भरा ही रहता सदा
इस बार न सही
अगली बार उगा लूंगा
कुछ अनाज
बेच कर
कर दूंगा तेरे हाथ पीले।
देखते ही देखते
इस गगन में छा गयी काली बदराया
दूर कहीं बोलने लगे थे कौए
चील, गिद्धों को लग गई थी भनक
आज का भेजना हुआ मयस्सर
इस उजाड़ में।
तेरे शहर से उम्मीदों की पोटली लिए जा रहा हूं
तुम परेशां मत होना
वहां भी बोउंगा
गोड़ूंगा,
फसल तैयार होते ही काटूंगा,
वहां रहते हैं इंद्रा
बरसाएंगे रिमझिम बुंदकिया
तर हो जाएगा मन
उम्मीदों की फसल वहां नहीं उगती
नहीं मिलता लोन किसी भी बैंक से
न होंगे वहां तगादाकार
न होगी घोषणाओं की बौछार
जो बोउंगा वही काटूंगा।
बहुत शानदार | गूढ़ अर्थ और संवेदनाओं से परिपूर्ण दिल को छु लेने वाली कविता ..
Thanks Rachana ji. Like this poem. Actually its reality more than a poem.
Really good and actual condition of the farmer today.