Homeकेदारनाथ अग्रवालकनबहरे कनबहरे प्रेम प्रकाश केदारनाथ अग्रवाल 24/01/2012 No Comments कोई नहीं सुनता झरी पत्तियों की झिरझिरी न पत्तियों के पिता पेड़ न पेड़ों के मूलाधार पहाड़ न आग का दौड़ता प्रकाश न समय का उड़ता शाश्वत विहंग न सिंधु का अतल जल-ज्वार सब हैं – सब एक दूसरे से अधिक कनबहरे, अपने आप में बंद, ठहरे । Tweet Pin It Related Posts आज नदी बिलकुल उदास थी पहला पानी मजदूर का जन्म About The Author प्रेम प्रकाश Leave a Reply Cancel reply Save my name, email, and website in this browser for the next time I comment.