निकल पड़ता है घर से रोज़ दर्द-ए-दिल भुलाने को,
राह पकड़ता है बुतख़ाने की या जाता है मयख़ाने को।
मेरे माज़ी के मुझपे हैं कुछ एहसान बेशुमार,
मैं आया हूँ सुनाने आज वो अफ़साने ज़माने को।
वो रुपया पैसा इज़्ज़त शौहरत सब लुटा बैठा,
इस शहर में आया था जो अपना घर बसाने को।
तुम उस पाक रिश्ते को न उम्र भर निबाह पाये,
फ़क़त फेरों का रिश्ता था बना था जो निबाहने को।
मज़हबी बातें करता है मगर इक सच तो ये भी है,
निकल पड़ता है अपने घर से किसी का घर जलाने को।
— अमिताभ ‘आलेख’